किस यज्ञ से कौन सा फल
यज्ञ का धार्मिक महत्व तो है ही इसके पीछे पर्यावरण और विज्ञान संबंधी कारण भी छिपे हैं। प्राचीनकाल में राजा कई यज्ञ करवाया करते थे, बारिश के लिए, राज्यवृदिध के लिए और विश्वविजयी कामना से। कई कथाओं में पुत्रप्राप्ति के लिए भी यज्ञ का विधान बताया गया है। होली जैसे त्योहार की शुरुआत भी यज्ञ से ही हुई थी।
लौकिक स्तर पर रोज किए जाने वाले अग्निहोत्र को नित्य यज्ञ और मौसम के साथ या किसी विशेष उद्देश्य से किया जाने वाला यज्ञ नैमित्तिक यज्ञ कहा गया है।इसमें नित्य यज्ञ पंच महायज्ञ के रूप में प्रचलित हुआ जिनमें देव, ऋषि, भूत, पितृ और मनुष्य के लिए अन्न-द्रव्य त्याग का विधान था। इसमें देवयज्ञ देवों के प्रति कृतज्ञता, ऋषि-यज्ञ ज्ञान की परंपरा, पितृ-यज्ञ वंश परंपरा, भूत-यज्ञ सभी जीव-जंतुओं और मनुष्य यज्ञ मानव मात्र के प्रति कृतज्ञता और सद्भावना व्यक्त करते हैं। मनुष्य का आत्मिक और नैतिक बल बढ़ाते हैं। वेदों के अनुसार यज्ञ से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। देवत्व से परिपूर्ण ऐसी जीवनशैली को स्वर्ग कहा गया है। सामुदायिक स्तर पर ऋतुओं में फसल कटने के समय अनुष्ठान होते। यह सामाजिक स्तर पर फसलों के रूप में प्रकृति से मिले अवदानों के बांटने और उसके लिए ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का आयोजन होता था।
शरद ऋतु की समाप्ति पर आग्रयणष्टि, वसंत की समाप्ति पर चैत्री, श्रावण में श्रावणी, आश्विन में श्राद्ध और वर्षा ऋतु में चातुर्मास्य याग होते थे। ये पाक यज्ञ कहलाते थे। इसके अतिरिक्त प्रति अमावस्या व पूर्णिमा को दर्श पौर्णमास इष्टि का विधान है। इन यज्ञों के अतिरिक्त सोमयज्ञ संस्था थी। लंबे समय तक चलने वाले प्रसिद्ध राजसूय, विश्वजित्, यज्ञों का राजा कहा जाने वाला अश्वमेध यज्ञ इसके अंतर्गत आते थे। इन यज्ञों के विशिष्ट उद्देश्य और वृह्द यज्ञ विधान होते थे। इतने विशाल कर्मकांड के बावजूद यज्ञ की भावना अर्पण करने में होती थी। यजमान धन-दृव्य, सोमरस, पशु, खीर आदि जो भी आहूति देता उसमें वह स्वयं का आरोपण करता। इस प्रकार ये पदार्थ उसके आत्मोत्सर्ग के माध्यम बनते।
सोमयज्ञ संस्थाओं के यज्ञों में
वाजपेय यज्ञ आधिपत्य की कामना से
विश्वजित् यज्ञ कामनाओं को पूर्ण करने के लिए
अश्वमेध यज्ञ विश्वविजयी होने के लिए
विश्वस्तुत यज्ञ यश की भावना के लिए किए जाते थे।
यज्ञ: देवताओं को दी जाती है आहुति
हवन यज्ञ का छोटा रूप है। किसी भी पूजा अथवा जप आदि के बाद अग्नि में दी जाने वाली आहुति की प्रक्रिया हवन के रूप में प्रचलित है।
यज्ञ किसी खास उद्देश्य से देवता विशेष को दी जाने वाली आहुति है। इसमें देवता, आहुति, वेदमंत्र, ऋत्विक, दक्षिणा अनिवार्य रूप से होते हैं।
यज्ञ के प्रकार
पुत्रेष्ठि- पुत्र प्राप्ति की कामना से। महाराज दशरथ ने यही यज्ञ किया था, परिणामस्वरूप श्रीराम सहित चार पुत्र जन्मे।
अश्वमेघ- जो सौ बार यह यज्ञ कर लेता है उसे इंद्र पद की प्राप्ति हो जाती है।
राजसूय- राजा द्वारा किया जाता है। अपनी कीर्ति और राज्य की सीमाएं बढ़ाने के लिए। युधिष्ठिर ने यह यज्ञ किया था।
विश्वजीत- विश्व को जीतने के उद्देश्य से विश्वजीत यज्ञा किया जाता है। साथ ही इस यज्ञ से सभी कामनाएं पूरी करता है। राम के पूर्वज महाराज रघु ने विश्वजीत यज्ञ किया था।
सोमयज्ञ- सभी के कल्याण की कामना से सोमयज्ञ किया जाता है। आज के युग में सोमयज्ञ सर्वाधिक किए जाते हैं। इनके अलावा आजकल विष्णु यज्ञ, शतचंडी यज्ञ, रूद्र यज्ञ, गणेश यज्ञ आदि किए जाते हैं। ये सभी परंपरा में हैं।
क्यों करते हैं हवन
भगवान की आराधना की कई विधियां हैं। सभी भक्त अपनी श्रद्धानुसार भगवान को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं। इन्हीं विधियों में से एक है हवन। हवन अर्थात् देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना। इसे अग्रिहोत्र भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि हवन से देवता प्रसन्न होते हैं। हवन के अंतर्गत कुंड में प्रज्जवलित अग्नि में आहूति दी जाती है। यह आहूति तुरंत ही देवताओं को प्राप्त हो जाती है। अत: हवन का विशेष महत्व माना गया है।
देवताओं की पूजा करने के लिए हवन क्यों किया जाए? यह जिज्ञासा सहज ही उठती है। वास्तव में देवता सूक्ष्म शरीरवाले होते हैं अर्थात् वे दिखाई नहीं देते। अग्नि में हवन किए गए द्रव्य की गंध उनको प्राप्त होती है। वे इसी से तुरंत ही संतुष्टï होते हैं। इसीलिए स्वाहा बोलते हुए यज्ञ की पवित्र अग्रि में देवताओं को आहुतियां दी जाती हैं। देवताओं की प्रसन्नता से हवन करने वाले भक्तों की सारी मनोकामनाएं स्वत: ही पूर्ण हो जाती हैं और देवताओं की कृपा के साथ ही अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
ऐसा नहीं है कि हवन का सिर्फ धार्मिक महत्व है, इसका वैज्ञानिक महत्व भी है। हवन से ही वातावरण शुद्ध होता है, वर्षा भी इसी से होती है। वर्षा से ही हमें जल, अन्नादि प्राप्त होता है। चूंकि हवन में कई औषधिय गुण वाली सामग्री प्रयुक्त की जाती है, जिससे हवन के धुएं में कई औषधिय गुण आ जाते हैं जिनसे वातावरण में मौजूद विषेले कीटाणु नष्ट हो जाते हैं साथ ही हमारी त्वचा की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
प्रार्थना अर्थात् भगवान से विनती
जब भी हम किसी भी परेशानी में फंस जाते हैं, जिसका हल हमारे पास नहीं होता या भगवान से हमें कोई मनोकामना पूर्ण कराना हो तो ऐसी परिस्थिति में हम भगवान से जो विनती करते हैं उसे प्रार्थना कहते हैं। प्रार्थना कई प्रकार से की जाती है, जैसे:
- इच्छापूर्ति के लिए प्रार्थना- किसी मनोकामना की पूर्ति के लिए भगवान से जो विनती की जाती है उसे इच्छापूर्ति की प्रार्थना कहते हैं।
- सामान्य प्रार्थना- कई बार बिना किसी कामना या समस्या के श्रद्धा और भक्ति से भगवान की प्रार्थना की जाती है, वह सामान्य प्रार्थना कहलाती है।
- बुराइयों से मुक्ति के लिए प्रार्थना- अपनी कमजोरी व बुराइयों को दूर करने या उनसे लडऩे की शक्ति प्राप्त करने के लिए भगवान से प्रार्थना की जाती है।
- स्वीकारने की प्रार्थना- कुछ लोग ईश्वर की महिमा, सत्ता, प्रभुता को समझकर उसे स्वीकार कर या मानकर भी प्रार्थना करते हैं।
- धन्यवाद की प्रार्थना- मनोकामना की पूर्ति हो जाने पर या जीवन सुखमय होने पर भगवान की कृपा का धन्यवाद देने के लिए भी प्रार्थना की जाती है।
- मौन प्रार्थना- पूर्ण समर्पण भावना से मौन होकर प्रार्थनाशील हो जाना।
कैसे करें प्रार्थना
- सरल, हृदय से।
- सबके कल्याण को ध्यान में रखकर।
- हर पल हर समय प्रार्थनामय बनें (कामनामय नहीं)।
- यदि इच्छा भी करें तो उसे पूर्ण करने की आजादी ईश्वर को दें।
- जीवन और अस्तित्व के प्रति श्रद्धावान बनें।
पूजा में क्यों वर्जित हैं लोहा, एल्युमीनियम
भारतीय पूजा पद्धति में धातुओं के बर्तन का बड़ा महत्व है। हर तरह की धातु अलग फल देती है और उसका अलग वैज्ञानिक कारण भी है। सोना, चांदी, पीतल, तांबा सभी धातुओं का अपना-अपना महत्व होता है। पूजा पद्धति में लोहा और एल्युमीनियम को वर्जित माना गया है।
लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है तथा पूजा और धार्मिक क्रियाकलापों में इन धातुओं के बर्तनों के उपयोग की मनाही की गई है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती। लोहे में हवा पानी से जंग लगता है। एल्यूमीनियम से भी कालिख निकलती है। इसलिए इन्हें अपवित्र कहा गया है। जंग आदि शरीर में जाने पर घातक बीमारियों को जन्म देते हैं। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम और स्टील को पूजा में निषेध माना गया है।
खंडित मूर्ति की पूजा क्यों नहीं करते ?
ईश्वर की भक्ति में भगवान की मूर्ति का अत्यधिक महत्व है। प्रभु की मूर्ति देखते ही भक्त के मन में श्रद्धा और भक्ति के भाव स्वत: ही उत्पन्न हो जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान की प्रतिमा पूर्ण होना चाहिए कहीं से खंडित होने पर प्रतिमा पूजा योग्य नहीं मानी गई है। खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन माना गया है। प्रतिमा की पूजा करते समय भक्त का पूर्ण ध्यान भगवान और उनके स्वरूप की ओर ही होता है। अत: ऐसे में यदि प्रतिमा खंडित होगी तो भक्त का सारा ध्यान उस मूर्ति के उस खंडित हिस्से पर चले जाएगा और वह पूजा में मन नहीं लगा सकेगा। जब पूजा में मन नहीं लगेगा तो व्यक्ति की भगवान की ठीक से भक्ति नहीं कर सकेगा और वह अपने आराध्य देव से दूर होता जाएगा। इसी बात को समझते हुए प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों ने खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन बताते हुए उसकी पूजा निष्फल ठहराई गई है।
शंख का पूजा में महत्व
हिंदू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार शंख बजाने से भूत-प्रेत, अज्ञान, रोग, दुराचार, पाप, दुषित विचार और गरीबी का नाश होता है। शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पंचजन्य शंख बजाया गया था।आधुनिक विज्ञान के अनुसार शंख बजाने से हमारे फेफड़ों का व्यायाम होता है, श्वास संबंधी रोगों से लडऩे की शक्ति मिलती है। पूजा के समय शंख में भरकर रखे गए जल को सभी पर छिड़का जाता है जिससे शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में कैल्शियम, फास्फोरस और गंधक के गुण होते हैं जो उसमें रखे जल में आ जाते हैं।
कैसे करे घर में पूजा ?
घर में मंदिर का निर्माण ईशान कोण (उत्तर पूर्व) में ही होना चाहिए। मंदिर ठोस आधार पर रखा हुआ हो। मंदिर के नीचे दराज न हो। वो जमीन से ऊपर उठा नहीं हो तो बेहतर होता है। मंदिर के ऊपर ध्वजा का चिन्ह आवश्यक रूप से लगाना चाहिए। जगह नहीं हो तो घर की छत पर ध्वजा लगाना चाहिए। घर में शिवलिंग एक ही होना चाहिए। शिवलिंग पत्थर, संगमरमर से बना श्रेष्ठ होता है। इसके अलावा पारद, स्फटिक, सोना, चांदी के शिवलिंग भी पूजा के उपयोग में लाए जा सकते हैं। परंतु शिवलिंग ठोस ही होना चाहिए। खोखले शिवलिंग पूजन में त्याज्य हैं। लोहा, तांबा, पीतल के शिवलिंग का पूजन नहीं करें। घर में शिवलिंग अंगूठे के आकार का होना चाहिए। घर में महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी का फोटो या मूर्ती आप स्थापित कर सकते हैं, परंतु उनका पूजन नित्य होना आवश्यक है। महाकाली को हर मंगलवार को 7 या 11 हरे नीबू की माला आवश्यक रूप से पहनानी चाहिए तथा तीनों ही माताओं को गुलाब के फूल अति पसंद है। अत: गुलाब के फूल से ही उनका पूजन करना चाहिए।यदि आपके घर में ठाकुर जी की सेवा होती है, तो उनकी सेवा उसी प्रकार होती है, जैसे एक छोटे बालक की। मंदिर की पवित्रता हमेशा बनाए रख्ेां, तथा यह प्रयास करें कि वहां हमेशा सुगंधित वातावरण रहे।
क्यों की जाती है मंगल की भात(rise) पूजा ?
ग्रह पूजा में हर ग्रह की पूजन सामग्री भिन्न होती है। जिसमें मंगल की भातपूजा प्रसिद्ध है। मंगल को भात क्यों चढ़ाया जाता है। यह भोग है या श्रंगार। दरअसल मंगल लाल ग्रह है, अग्नि का कारक है, इसका एक नाम अंगार भी है।
यह तेज और आग से परिपूर्ण है। इसलिए मंगल से प्रभावित कुंडली के लोगों के स्वभाव में गुस्सा और चिड़चिड़ापन भी शामिल होता है।
मंगल को भात इसलिए चढ़ाए जाते हैं क्योंकि भात यानी चावल की प्रकृति ठंडी होती है। इससे मंगल को शांति मिलती है और वह भात पूजन करने वाले पर कृपा करते हैं। ठंडक मिलने से मंगल के दुष्प्रभाव स्वत: कम होते हैं।
मंगल से प्रभावित कुंडली वाले जातकों को भी अपने खाने में चावल को शामिल करना चाहिए जिससे उनके स्वभाव में भी थोड़ी शांति और ठंडक आती है। क्रोध कम होता है।
नवग्रहों के हवन हेतु समिधाएं
प्रस्तुति-
विभिन्न देवताओं और ग्रहों के हवन के लिए समीधा (लकड़ी) का भी अलग-अलग उपयोग होता है। उसी प्रकार विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए भी अलग लकडिय़ों का होम में प्रयोग होता है। सात्विक एवं शुभ कार्यों में कांटेदार तथा कीड़े लगी लकडिय़ों को उपयोग में नहीं लाया जाता है। जैसे बेर, बबुल आदि वही अनाचारी कर्मों में इनका प्रयोग हो सकता है। शुभ कर्मों में आम, चंदन, पलाश, जामुन, क्षीर, पीपल की लकडिय़ों को हवन हेतु उपयुक्त माना गया है। अलग कार्यों हेतु भी ग्रहों का अलग लकडिय़ों का इस्तेमाल किया जाता है।
रोगों के नाश के लिए
सूर्य के मंत्रों द्वारा मदार की समीधा
आयु वृद्धि हेतु व समस्त कार्य सिद्ध हेतु
चंद्र के मंत्र द्वारा पलाश की समीधा
धन एवं भूमि प्राप्ति हेतु
मंगल के मंत्रों द्वार खेर की समीधा
बुद्धि बढ़ाने हेतु
बुध के मंत्रों से चिचड़ी (अपामार्ग) की समीधा
इष्ट सिद्धि एवं मानसिक विकार दूर करने हेतु
गुरु के मंत्रों से पीपल की समीधा
काम बढ़ाने के लिए
शुक्र के मंत्रों से गुलर की समीधा
नवग्रहों के हवन हेतु समिधाएं
विभिन्न देवताओं और ग्रहों के हवन के लिए समीधा (लकड़ी) का भी अलग-अलग उपयोग होता है। उसी प्रकार विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए भी अलग लकडिय़ों का होम में प्रयोग होता है। सात्विक एवं शुभ कार्यों में कांटेदार तथा कीड़े लगी लकडिय़ों को उपयोग में नहीं लाया जाता है। जैसे बेर, बबुल आदि वही अनाचारी कर्मों में इनका प्रयोग हो सकता है। शुभ कर्मों में आम, चंदन, पलाश, जामुन, क्षीर, पीपल की लकडिय़ों को हवन हेतु उपयुक्त माना गया है। अलग कार्यों हेतु भी ग्रहों का अलग लकडिय़ों का इस्तेमाल किया जाता है।
रोगों के नाश के लिए
सूर्य के मंत्रों द्वारा मदार की समीधा
आयु वृद्धि हेतु व समस्त कार्य सिद्ध हेतु
चंद्र के मंत्र द्वारा पलाश की समीधा
धन एवं भूमि प्राप्ति हेतु
मंगल के मंत्रों द्वार खेर की समीधा
बुद्धि बढ़ाने हेतु
बुध के मंत्रों से चिचड़ी (अपामार्ग) की समीधा
इष्ट सिद्धि एवं मानसिक विकार दूर करने हेतु
गुरु के मंत्रों से पीपल की समीधा
काम बढ़ाने के लिए
शुक्र के मंत्रों से गुलर की समीधा
हवन की आहूति में (स्वाहा)का उच्चारण क्यों ?
किसी भी शुभ कार्य में हवन होते हमने देखा है कि अग्नि में आहूति देते वक्त स्वाहा का उच्चारण किया जाता है। यह स्वाहा ही क्यों कहा जाए आईए जानते हैं इस शब्द के बारे में।अर्थ: स्वाहा शब्द का अर्थ है सु+आ+हा सुरो यानि अच्छे लोगों को दिया गया। अग्नि का प्रज्जवलन कर उसमें औषधियुक्त (खाने योग्य घी मिश्रित) की आहूति देकर क्रम से देवताओं के नाम का उल्लेख कर उसके पीछे स्वाहा बोला जाता है। जैसे इंद्राय स्वाहा यानि इंद्र को प्राप्त हो इसी तरह समस्त हविष्य सामग्री अलग-अलग देवताओं की समर्पित की जाती है।
धार्मिक महत्व
श्रीमद्भागवत एवं शिवपुराण के अनुसार दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। उनमें से पुत्री का विवाह उन्होंने अग्नि देवता के साथ किया था। उनका नाम था स्वाहा। अग्नि अपनी पत्नी स्वाहा द्वारा ही भोजन ग्रहण करते है। दक्ष ने अपनी एक अन्य पुत्री स्वाधा का विवाह पितरों के साथ किया था। अत: पितरों को आहूति देने के लिए स्वाहा के स्थान पर स्वाधा शब्द बोला जाता है।
मन से सब कुछ सौंपना है मानस पूजा
ईश्वर इंद्रियों से अनुभव नहीं किए जा सकते। चूंकि इंद्रियों का संचालन मनोभावों से होता है तथा भाव का संबंध मन से होता है। इसलिए भगवान से जुड़ने या महसूस करने के लिए मन को साधना जरुरी है। कहा भी जाता है कि भगवान तो भाव के भूखे होते हैं। इसलिए हिन्दू धर्म ग्रंथों में भगवान की पूजा को अधिक फलदायी बनाने मन शुद्धि के लिए अनेक विधान बनाए गए हैं। उन्हीं में से एक श्रेष्ठ विधी है - मानस पूजा अर्थात् मन से भगवान की पूजा। जिसमें भगवान की आराधना के लिए बाहरी वस्तुओं या पदार्थो का उपयोग नहीं किया जाता। मात्र मन के भावों मानस से ही भगवान को सभी पदार्थ अर्पित किए जाते हैं। पुराणों में लिखा है कि ब्रह्मर्षि नारद ने देवताओं के राजा इन्द्र को बताया कि असंख्य बाहरी फूलों को देवताओं को चढाने से जो फल मिलता है, वही फल मात्र एक मानस फूल के अर्पण से ही हो जाता है। इसलिए मानस फूल श्रेष्ठ है। इसी प्रकार मानस चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य का अर्पण भी भगवान की प्रसन्नता के लिए बाहरी उपचारों से श्रेष्ठ है।
मानस पूजा के क्रम में ही हिन्दू धर्म के पंच देवों में एक भगवान शिव की मानस पूजा का विशेष महत्व माना गया है। शिव को ऐसे देव के रुप में जाना जाता है, जो स्वयं सरल हैं, भोले हैं और मात्र बेलपत्र चढ़ाने, जल के अर्पण, यहां तक कि शिव व्रत की कथानुसार अनजाने में की गई आराधना से भी प्रसन्न हो जाते हैं। वेद-पुराणों के अनुसार शिव अनंत हैं, अव्यक्त हैं, निराकार ब्रह्म हैं। शिव अष्टमी और चतुर्दशी तिथि के स्वामी है। शिव मृत्युलोक के अधिष्ठाता देव हैं। वह रात्रि के नियंत्रक देव हैं। अत: शिव के सानिध्य प्राप्त करने के लिए इन तिथियों में व्रत, उपवास के साथ ही शिव मानस पूजा पाठ को श्रेष्ठ विधान बताया गया है। क्योंकि की शिव की महिमा में संसार में ऐसा कोई दिव्य पदार्थ नहीं माना जाता है, जिससे शिव की पूजा की जा सके। किंतु शिव मानस पूजा में भक्त मानसी सामग्रियों से भगवान की सेवा कर पाता है और उसका संपूर्ण तन, मन, इंद्रियां भगवान शिव के ध्यान में लीन हो जाता है और सभी विकारों, दोषों और कामनाओं से मुक्त होकर साधक का मन पवित्र हो जाता है।मूलत: मानस पूजा साधक के मन को एकाग्र व शांत करती है। शिव मानस पूजा में जितना समय भगवान के स्मरण और ध्यान में बीतता है अर्थात् व्यक्ति अन्तर जगत में रहता है, उतने ही समय वह बाहरी जगत से प्राप्त तनाव व विकारों से दूर रहकर मानसिक स्थिरता प्राप्त करता है। मानस पूजा में साधक बाहरी पूजा में आने वाली अनेक भय, बाधा और कठिनाईयों से मुक्त होता है। साधक के पास भगवान के सेवा हेतु मानसी पूजा सामग्री जुटाने के लिये असीम क्षेत्र होता है। इसके लिये वह भूलोक से शिवलोक तक पहुँचकर भगवान की उपासना के लिये श्रेष्ठ व उत्तम साधन प्रयोग कर सकता है। जैसे वह पृथ्वी रुपी चन्दन, आकाश रुपी फूल, वायुरुपी धूप, अग्निदेव रुपी दीपक, अमृत के समान नैवेद्य आदि से भगवान की पूजा कर सकता है। इस प्रकार वह बंधनमुक्त होकर भावनापूर्वक मानस पूजा कर सकता है। मानस पूजा में समय बीतने के साथ भक्त ईश्वर के अधिक समीप होता जाता है। एक स्थिति ऐसी भी आती है, जब भक्त, भगवान और भावना एक हो जाते हैं। साधक स्वयं को निर्विकारी, वासनारहित स्थिति में पाता है और सरस हो जाता है। इससे बाहरी जगत और बाहरी पूजा भी आनंद भर जाती है।
वर्तमान में समयाभाव और प्रतिकूल स्थितियों के कारण ईश्वर की साधना से वंचित और देव आराधना के आकांक्षी भक्तों के लिये शिव के व्रत, उपवास की इन तिथियों में पूजा की इस विधि को अपनाना ही भगवान शिव की समीपता का श्रेष्ठतम मार्ग है।
जाने यज्ञ के विषय में
जाने यज्ञ के विषय में ऱचना- ब्रह्म ने कीवर्णन- वेदों मेंदूसरा नाम- अग्नि पूजाखास बात- वर्षा होती हैमिलता है- मन चाहा फलहवन और यज्ञहवन यज्ञ का छोटा रूप है। किसी भी पूजा अथवा जप आदि के बाद अग्नि में दी जाने वाली आहुति की प्रक्रिया हवन के रूप में प्रचलित है। यज्ञ किसी खास उद्देश्य से देवता विशेष को दी जाने वाली आहुति है। इसमें देवता, आहुति, वेदमंत्र, ऋत्विक, दक्षिणा अनिवार्य रूप से होते हैं।
प्रमुख यज्ञ-पुत्रेष्ठि- पुत्र प्राप्ति की कामना से। महाराज दशरथ ने यही किया था, परिणामस्वरूप श्रीराम सहित चार पुत्र जन्मे।अश्वमेघ- जो सौ बार यह यज्ञ करे, वह इंद्र का पद प्राप्त करता है। राजसूय- राजा द्वारा किया जाता है। अपनी कीर्ति और राज्य की सीमाएं बढ़ाने के लिए। युधिष्ठिïर ने किया था।विश्वजीत- विश्व को जीतने के उद्देश्य से। सभी कामनाएं पूरी करता है। राम के पूर्वज महाराज रघु ने किया था। सोमयज्ञ- सभी के कल्याण की कामना से। आधुनिक युग में सर्वाधिक होते हैं। इनके अलावा आजकल विष्णु यज्ञ, शतचंडी यज्ञ, रूद्र यज्ञ, गणेश यज्ञ आदि किए जाते हैं।
यज्ञ :एक प्रा़चीन विज्ञान जो अद्भुत है
यज्ञ :एक प्रा़चीन विज्ञान जो अद्भुत हैयज्ञ एक महत्वपूर्ण विज्ञान है। इसमें आहुति देने के लिये जिन वृक्षों की समिधाएं उपयोग में लाई जाती हैं, उनमें विशेष प्रकार के गुण होते हैं। किस प्रयोग के लिए किस प्रकार की सामग्री डाली जाती है, इसका भी विज्ञान है। उन वस्तुओं के सम्मिश्रण से एक विशेष गुण तैयार होता है, जो जलने पर वायुमंडल में विशिष्टï प्रभाव पैदा करता है। वेद मंत्रों के उच्चारण की शक्ति से उस प्रभाव में ओर अधिक वृद्धि होती है। फलस्वरूप जो व्यक्ति उस यज्ञ में शामिल होते हैं उन पर तथा निकटवर्ती वायुमंडल पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ता है। यह विचार ठीक नहीं है कि अग्नि जलने से वायुमंडल की आक्सीजन खर्च होती है और कार्बन गैस उत्पन्न होती है। जितनी आक्सीजन इसमें खर्च होती है, उससे कई गुना ज्यादा तो कल कारखानों, मोटर वाहनों आदि में खर्च होती है। हवन यज्ञ में खर्च होने वाली आक्सीजन की पूर्ति तो इसके बाद उत्पन्न होने वाली दस वनस्पतियों वृक्षों से ही हो जाती है। वैज्ञानिक अभी तक कृत्रिम वर्षा कराने में सफल नहीं हुए हैं, किंतु यज्ञ द्वारा वर्षा के प्रयोग अधिकतर सफल होते हैं।व्यापक सुख-समृद्धि, वर्षा, आरोग्य, शांति के लिए बड़े यज्ञों की आवश्यकता पड़ती है लेकिन छोटे हवन भी अपनी सीमा और मर्यादा के भीतर हमें लाभान्वित करते हैं।
यज्ञ एक वैज्ञानिक विद्या, जो 100 प्रतिशत कारगर है
यजन, पूजन, सम्मिलित विचार, वस्तुओं का वितरण। बदले के कार्य, आहुति, बलि, चढ़ावा, अर्पण आदि के अर्थ में भी यह शब्द उपयोग होता है। यज्ञ, तप का ही एक रूप है। विशेष सिद्धियों या उद्देश्यों के लिए यज्ञ किए जाते हैं। चार वेदों में यजुर्वेद यज्ञ के मंत्रों से भरा है। इसके अलावा वेद आधारित अन्य शास्त्र, ब्राह्मण ग्रंथों और श्रोत सूत्रों में यज्ञ विधि का बहुत विस्तार से वर्णन हुआ है। वैदिक कालिन कार्यों एवं विधानों में यज्ञ का प्रधान धार्मिक कार्य माना गया है।वैज्ञानिक विद्या: यह इस संसार तथा स्वर्ग दोनों में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का प्रमाणिक मार्ग या साधन है। यज्ञ एक वैज्ञानिक विद्या है जो 100 प्रतिशत कारगर एवं प्रामाणिक है। यज्ञ को पूरी तरह शास्त्र सम्मत एवं विधिविधान से करने पर इसके अद्भुत परिणाम प्राप्त होते हैं। यज्ञ से आसपास का वातावरण शुद्ध, पवित्र एवं दिव्य ऊर्जा से संपन्न होता है। आसपास के वातावरण में विभिन्न प्रकार की बीमारियों के कीटाणु यज्ञ की धूम और मंत्रों की ध्वनि तरंगों से नष्ट हो जाते हैं। इतना ही नहीं पर्यावरण के संतुलन एवं संतुलित वर्षा में यज्ञ का महत्वपूर्ण योगदान है। यज्ञ की उपयोगिता एवं सफलता के तीन प्रमुख आधार है। 1. मंत्रों की ध्वनि का विज्ञान।2. दिव्य जड़ी-बूटियों एवं वनस्पतियां। 3. साधक की एकाग्रता एवं मनोबल।यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यंत्र समझना चाहिए जिसके सभी पूर्जे ठीक-ठीक एवं उचित स्थान पर संलग्न हो। जो यज्ञ का ठीक प्रयोग जानते हैं तथा पूर्णत: एवं वर्चस्वी निश्चित रूप से होते हैं। यज्ञ की विधा एक ऐसी विद्या है जो अति प्राचीन काल से चली आ रही है। यहां तक की सृष्टि की उत्पत्ति यज्ञ का फल कही जाती है। सृष्टि की रचना से पूर्व स्वयं शक्ति अर्जित करने के लिए यज्ञ किया एवं शक्ति प्राप्त की।
यज्ञ अंध श्रद्धा या विज्ञान
धर्मग्रंथों में यज्ञ की महिमा खूब गाई गई है। यज्ञ वेद का प्रमुख विषय है। क्योंकि यज्ञ एक ऐसा विज्ञानमय विधान है जिससे मनुष्य का भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से उत्कर्ष होता है।यज्ञ से भगवान प्रसन्न होते हैं, ऐसा धर्मग्रंथो में कहा गया है। ब्रह्म ने मनुष्य के साथ ही यज्ञ की भी रचना की और मनुष्य से कहा इस यज्ञ के द्वारा ही तुम्हारी उन्नति होगी। यज्ञ तुम्हारी इच्छित कामनाओं, आवश्यकताओं को पूर्ण करेगा। तुम यज्ञ के द्वारा देवताओं को पुष्ट करो, वे तुम्हारी उन्नति करेंगे।राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ कर चार पुत्र पाए। भगवान राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा कसे पांडवों ने राजसूय यज्ञ कराया था। राजा नल ने यज्ञों के द्वारा स्वर्ग जाकर इंद्रासन को प्राप्त किया था। शोधार्थियों ने यज्ञ को अग्नि पूजा कहा है। ईरानी आर्य (पारसी) अग्नि की उपासना करते हैं। कर्मों के प्रायश्चित स्वरूप, अनिष्ट और प्रारब्धजन्य दुर्योगों की शांति के लिए, किसी अभाव की पूर्ति के लिए , कोई सुयोग या सौभाग्य प्राप्त करने के लिए, रोग-व्याधि, देवताओं को प्रसन्न करने हेतु, धन-धान्य की अधिक उपज के लिए, अमृतमयी वर्षा के लिये , वायुमंडल के शुद्धिकरण हेतु हवन किए जाते थे। साधनाओं में हवन अनिवार्य है। जितने भी जप, पाठ, पुनश्चरण किए जाते हैं, उनमें किसी न किसी रूप में हवन अवश्य करना पड़ता है। गायत्री उपासना में भी हवन आवश्यक है। गायत्री को माता और यज्ञ को पिता कहा गया है। इन्हीं के संयोग से मनुष्य का आध्यात्मिक जन्म होता है।
यज्ञ विधी
यज्ञकुण्ड - मंडप में अथवा घर में स्वच्छ, वायुयुक्त, प्रकाशयुक्त, लम्बे चौड़े विस्तीर्ण, समतल भूपृष्ठ पर बनाय २४ अंगुल लम्बी, २४ अंगुल चौड़ी भूमि लेकर उसके चारो ओर ८ अंगुल ऊंची तथा ३ अंगुल चौडी एक मेखला (सोपान) दीवाल जैसी, चिकनी मिट्टी की बनाये । तत्पश्चात इस सोपान के नीचे बाहर से चार अंगुल पर, तीन अंगुल चौड़ा दूसरा सोपान बनाये । इसके अनन्तर इस सोपान के नीचे तीन अंगुल पर दो अंगुल चौड़ा तथा दो अंगुल ऊंचा तीसरा सोपान बनाये । इस प्रकार भूपृष्ठ भाग पर ७ अंगुल गहरा, २४ अंगुल लम्बा २४ अंगुल चौड़ा कुण्ड होगा जिसके बाहर से चारों ओर भूपृष्ठ भाग से ऊपर २,३,४ अंगुल के समान ऊंचाई-चौड़ाई के तीन-तीन सोपान होंगे । विवाह, उपनयन और समावर्तन के समय ऐसे कुण्डो की योजना करनी चाहिए । पुंसवनादि अन्य मंगल-संस्कारों मे भो उपर्युक्त विवाहादि के लिये निर्मित यज्ञकुंड के सदृश ही बनाना चाहिये । परन्तु भूमि २४ अंगुल के स्थान पर १२ अंगुल लम्बी चौड़ी लेकर उसके चारो ओर पूर्व की भांति बाहर से ३-३ सोपान भूपृष्ठ भाग से क्रमशः २-३-४ अंगुल की समान ऊंचाई और चौड़ाई के बनाये ।
ये यज्ञकुण्ड मंडप में अथवा घर में ऐसे स्थान पर होने चाहिए कि वधु-वरादि कार्य करने वाले को उस कुण्ड के निकट पूर्व की ओर मुह करके बैठने के लिये तथा इनके आगे, पार्श्व में, कार्य में सम्मिलित होने वाले लोगों के लिये विस्तीर्ण स्थान हो ।
होम द्रव्य - इसमें ईंधन और आहुति इस प्रकार दो द्रव्य होते है । ईंधन द्रव्य अर्थात् यज्ञाग्नि-प्रज्वलित करने के लिए उपयुक्त काष्ठ और तृण । काष्ठ यज्ञीय वृक्षों का होना चाहिए । चन्दन, पलाश और खैर ये मुख्य यज्ञीय वृक्ष है । इन वृक्षों के अभाव में बहेडा, लोध, हिंगणबेट नीम, अमलतास, सेहुड़ (थूहर), सेमल, पिपली, गूलर, आम, नार, लिसोड़ा वृक्षो को छोड़कर शेष वट, पीपल, पीपली, गूलर, आम, बेल, अपामार्ग, देवदारु, सुरु, शाल, शमी इत्यादि वृक्षों को यज्ञीय समझना चाहिए । यज्ञीय काष्ठ की भांति कुश और दर्भ मुख्य यज्ञीय तृण है । इनके अभाव में कुश घास, सर, मुंज देवनळ नड, मोळ, लळ्हाक इन तृणों को छोड़कर शेष सब तृण यज्ञीय समझना चाहिए । इस प्रकार के उपलब्ध यज्ञीय वृक्षों की लकड़ी ईंधन के लिए (कुण्डस्थ अग्नि प्रदीप्त करने के लिए) यज्ञकुण्ड के प्रमाणानुसार, कीटक और पर्ण रहित लेनी चाहिए । कुशादि तृण अग्रयुक्त, मूलरहित, अलग-अलग (एक दूसरे में उलझे न हो) एक बालिश्त लम्बाई के लेने चाहिए ।
द्रव्याहुति का प्रमाण - हाथ की कुहनी से कनिष्ठिकाग्र तक लम्बी और अंगूठे के पोर के बराबर मुंहवाली, खैर वृक्ष की या कांस्य की स्रुवा (करछी) दाहिने हाथ के अंगूथे, मध्यमा और अनामिका से पकडकर, इस स्रुवा से घृत, क्षीर आदि द्रव पदार्थों की आहुति दे । व्रीहि चरु आदि शुष्क पदार्थ दाहिने हाथ के अंगूठे, मध्यमा और अनामिका से (इन तीनो उंगलियों मे जितना आ सके) लेकर उसकी एक-एक आहुति दे । धान और ज्वार की खील की आहुति का प्रमाण अंजली है ।
अब समिधा अर्थात पूर्वोक्त यज्ञीय वृक्षों की विशेषरूप से चन्दन की कीटकों तथा पत्तों से रहित, जो फटी न हो कम से कम अंगूठे के बराबर मोटी, दस अंगुल लम्बी तोड़ी हुई लकड़ी लेनी चाहिये । पूर्वोक्त स्रुवा की भांति अंगूठे, मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग से समिधा पकड़कर आहुति दे ।
अनुसार ईंधन द्रव्यादि सब होम सामग्री की तैयारी कर लेनी चाहिए । तत्पश्चात सुनियोजित दिन प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व वधू-वर शुद्ध अभ्यंग स्नान करके उत्तम वस्त्र परिधान करे । वे पूर्वोक्त शुभ आसन पर (वर की दक्षिण ओर वधू पूर्व की ओर मुंह करके बैठे ।
यज्ञ का रहस्य। वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-
(1) ब्रह्मयज्ञ
(2) देवयज्ञ
(3) पितृयज्ञ
(4) वैश्वदेव यज्ञ
(5) अतिथि यज्ञ।
यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म। श्रेष्ठ कर्म। सतकर्म। वेदसम्मत कर्म। सकारात्मक भाव से ईश्वर- प्रकृति तत्वों से किए गए आह्वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है।
(1) ब्रह्मयज्ञ : जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्य। मनुष्य से बढ़कर है पितर, अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पाँच शक्तियाँ और देव से बढ़कर है- ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेद-पाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्ट होता है।
(2) देवयज्ञ : देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे 'देव ऋण' चुकता होता है। हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएँ (लकड़ियाँ) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जाँटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक
मिटते हैं। इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है।
(3) पितृयज्ञ : सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान
का भाव है। यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।
(4) वैश्वदेवयज्ञ : इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं।
(5) अतिथि यज्ञ : अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग,
महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है।
यही सामाजिक कर्त्तव्य है।
क्या देवता भोग ग्रहण करते है ?
हिन्दू धर्म में भगवान् को भोग लगाने का विधान है ...
क्या सच में देवतागण भोग ग्रहण करते ?
हां , ये सच है ..शास्त्र में इसका प्रमाण भी है ..
गीता में भगवान् कहते है ...'' जो भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है , उस शुध्द बुध्दी निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ , वह पत्र पुष्प आदि मैं ग्रहण करता हूँ ...गीता ९/२६
अब वे खाते कैसे है , ये समझना जरुरी है
हम जो भी भोजन ग्रहण करते है , वे चीजे पांच तत्वों से बनी हुई होती है ....क्योकि हमारा शरीर भी पांच तत्वों से बना होता है ..इसलिए अन्न, जल, वायु, प्रकाश और आकाश ..तत्व की हमें जरुरत होती है , जो हम अन्न और जल आदि के द्वारा प्राप्त करते है ...
देवता का शरीर पांच तत्वों से नहीं बना होता , उनमे पृथ्वी और जल तत्व नहीं होता ...मध्यम स्तर के देवताओ का शरीर तीन तत्वों से तथा उत्तम स्तर के देवता का शरीर दो तत्व --तेज और आकाश से बना हुआ होता है ...इसलिए देव शरीर वायुमय और तेजोमय होते है ...
यह देवता वायु के रूप में गंध, तेज के रूप में प्रकाश को ग्रहण और आकाश के रूप में शब्द को ग्रहण करते है ...
यानी देवता गंध, प्रकाश और शब्द के द्वारा भोग ग्रहण करते है ..जिसका विधान पूजा पध्दति में होता है ...
जैसे जो हम अन्न का भोग लगाते है , देवता उस अन्न की सुगंध को ग्रहण करते है ,,,उसी से तृप्ति हो जाती है ..जो पुष्प और धुप लगाते है , उसकी सुगंध को भी देवता भोग के रूप में ग्रहण करते है ...
जो हम दीपक जलाते है , उससे देवता प्रकाश तत्व को ग्रहण करते है ,,,आरती का विधान भी उसी के लिए है ..
जो हम मन्त्र पाठ करते है , या जो शंख बजाते है या घंटी घड़ियाल बजाते है , उसे देवता गण ''आकाश '' तत्व के रूप में ग्रहण करते है ...
यानी पूजा में हम जो भी विधान करते है , उससे देवता वायु,तेज और आकाश तत्व के रूप में '' भोग '' ग्रहण करते है ......
जिस प्रकृति का देवता हो , उस प्रकृति का भोग लगाने का विधान है . !!!
इस तरह हिन्दू धर्म की पूजा पध्दति पूर्ण ''वैज्ञानिक ''' है !!!
यज्ञ के बारे में हमने जितनी रिसर्च की उतने से हमारे ग्रुप ने यह आर्टिकल तैय्यार किया है
इस गूढ़ विषय को अपनी हर संभव कोशिस करने पर भी यह इतना बड़ा बन गया /
मैंने शास्त्रोक्त बातो को ही प्रधान रूप से और उनकी प्रमाणिकता के साथ इसे लिखवाया है
यह हमारे गुरूजी से जाँच ली गयी है ...
पहले यज्ञ भाग १ और अब आखिरी भाग आपको मेल कर रहा हूँ
इसे निरिक्षित कर के हमें बताये की क्या इसमे अभी भी संसोधन की जगह बाकि है क्या ?
अविकल्प शुक्ल